डाॅ अवध नारायण त्रिपाठी
परीक्षा शब्द ही बड़े बड़ों को चिन्तित कर देता है । मनुष्य ही नहीं देवता भी परीक्षा से सदैव घबड़ाते थे । उस समय की परीक्षा का कोई निर्धारित पाठ्यक्रम भी नहीं होता था अपितु वह जीवन के विविध आयाम से जुड़ा होता था जिसके उत्तर भी रटे रटाए नहीं होते थे अपितु त्वरित बुद्धि विवेक से नीर क्षीर विवेकी उत्तर देना होता था । आखिर आज ऐसे हालात कैसे पैदा हो गये कि परीक्षा एक मखौल बनकर रह गयी है । वह परीक्षा चाहे बोर्ड की हो , विश्वविद्यालय की हो या प्रतियोगितात्मक ?
आए दिन परीक्षा केन्द्र के संचालकों, कक्ष निरीक्षकों तथा प्रश्नपत्र छापने वाले प्रेस के मालिकों, कर्मचारियों की मिली भगत से परीक्षा पूर्व या तो प्रश्न पत्र संबंधित परीक्षार्थियों तक पहुँच जाता है या नकल की भेंट चढ़ जाता है । आज यह एक तंत्र के रूप में विकसित होकर भ्रष्टाचार का बड़ा उद्योग बन चुका है । अयोग्य लोग सरकारी नौकरी में अपना भविष्य सुरक्षित देखकर मोटी रकम खर्च कर योग्य अभ्यर्थियों के अधिकार पर डाका डालने का काम करते हैं। यह धंधा एक दिन की देन नहीं अपितु लम्बे समय तक राजनीतिक संरक्षण में फलने फूलने के कारण आजके युवाओं के भविष्य के लिए एक बड़ा अभिशाप बन चुका है ।
आखिर हमने पढ़ाई व परीक्षा को सरकारी नौकरी से जोड़ने में कहीं कोई भूल तो नहीं की ? हमारे दसवीं, बारहवीं , स्नातक व स्नातकोत्तर के प्राप्तांक का उस नौकरी / रोजगार विशेष से कोई सरोकार हो या नहीं फिर उन प्राप्तांकों का क्या मतलब ? हर छात्र छात्रा का पारिवारिक व सामाजिक परिवेश भिन्न होता है , शिक्षण संस्थान व वहां के अध्यापकों की योग्यता भिन्न होती है । ऐसे में इनके परीक्षा के अंक को एक ही मानदण्ड पर परखना कितना न्यायोचित है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्या जिस पद विशेष के लिए भर्ती होती है उससे जुड़े सवालों को प्रश्न पत्र में प्राथमिकता दी जाती है ? क्या साक्षात्कार में उस क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा साक्षात्कार लिया जाता है ? क्या उस चयन की निष्पक्षता प्रामाणिक है ? आदि आदि तमाम सवाल उठना स्वाभाविक है।
आखिर सरकारी नौकरियां इतनी मलाईदार क्यों ? क्या हम ऐसी व्यवस्था नहीं विकसित कर सकते जिसमें समान योग्यता वालों को समान अवसर मिले । यह अवसर उनमें रचनात्मक गुणवत्ता विकसित करने में उपयोगी हो और इस अनुभव के आधार पर वह जीवन के विविध क्षेत्र में अपना योगदान दे सकें। एक ऐसी पद्धति विकसित की जा सके जिसमें उनकी रुचि , मानसिक, शारीरिक क्षमता का सही मूल्यांकन किया जा सके और उनको उनकी रुचि की दिशा में बेहतर करने का सुअवसर प्रदान किया जा सके ?
आज बहुत से लोग बिना किसी सोच व योजना के स्नातक, स्नातकोत्तर के बाद पी एच डी की डिग्री लेकर फिर बी एड या डी एल एड करते हैं ताकि कोई सरकारी नौकरी मिल सके । यह समय ,धन व ऊर्जा का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है ? आज ऐसे लोग अध्यापन कार्य से जुड़े हैं जो दूर दूर तक उसके लायक नहीं फिर उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कैसे अपेक्षा की जा सकती है ? इनके द्वारा पढाए गये छात्र कितने योग्य होंगे ? आखिर क्यों न एक ऐसी पद्धति हो जो एक निश्चित अंतराल पर इनकी योग्यता की ईमानदार समीक्षा कर जड़ व अक्षम अध्यापकों की छुट्टी कर सके ।
हम अपने जिस गौरवशाली अतीत की चर्चा करते नहीं अघाते उसमें गुरुकुल बनाने व शिक्षा देने का अधिकार हर किसी के पास नहीं था , जो त्याग व तपस्या की प्रतिमूर्ति होते थे , वही शिक्षण कार्य करने के योग्य समझे जाते थे । यही कारण है कि उनके इस गुण के कारण ही चक्रवर्ती सम्राट भी अपने सिंहासन से उठकर उनका स्वागत करते थे और उच्च आसन पर उनको सुशोभित कर खुद को भाग्यशाली समझते थे । शिक्षा, जो तत्कालीन जरूरतों के अनुसार व्यक्तित्व निर्माण में अहम् भूमिका निभाती थी , आज व्यवसाय बनकर रह गयी है । जिनको शिक्षा का ए बी सी डी भी पता नहीं ऐसे धनपशु आज शिक्षा के पवित्र मंदिर पर अपने व्यवसाय का ताला लगा चुके हैं। किताब बेचना , स्कूल ड्रेस बेचना , समय समय पर विभिन्न क्रिया कलापों के नाम पर अभिभावकों से धन उगाही करना ही उनका मूल उद्देश्य होता है ।
जिन निजि शिक्षण संस्थानों में अध्यापकों का वेतन 30/40 हजार रुपये महीने तक सीमित है , वहां की शिक्षा व सुविधाएँ तुलनात्मक रूप से अच्छी हैं जबकि इसके विपरीत सरकारी शिक्षण संस्थानों में जहाँ अध्यापकों का मानदेय उनसे दुगुना से भी ज्यादा है, वहां शिक्षा का स्तर चिन्तनीय है । आखिर ऐसा क्यों है ? क्या यह हमें सोचने को विवश नहीं करता कि शिक्षा को निजी हाथों में ही क्यों न दे दिया जाय ? यह कितनी शर्मनाक स्थिति है कि वही अध्यापक जब तक निजी संस्थानों में पढ़ाता है तो अपना शत प्रतिशत देता है , उसकी लगातार समीक्षा होती है और उसके शैक्षणिक प्रदर्शन में कमी पाए जाने पर उसका मानदेय कम कर दिया जाता है अथवा उसे विद्यालय से छुट्टी दे दी जाती है । लेकिन ज्योंही वह सरकारी शिक्षण संस्थानों में नौकरी पा जाता है तो उसकी प्राथमिकता बदल जाती है और उसे घटिया प्रदर्शन के बावजूद निकाले जाने का कोई डर नहीं रहता । आखिर क्यों ? यह विसंगति क्यों ? इस पर हम सभी को सोचने की जरूरत है।
अब हम मूल सवाल पर आते हैं कि परीक्षा को ; खासतौर पर नौकरियों से जुड़ी परीक्षा को कैसे निष्पक्ष व पारदर्शी बनाया जाय ? मेरा ऐसा मानना है कि हर विभाग की जरूरत के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर एक परीक्षा आयोग का गठन हो , जो प्रत्येक वर्ष एक निश्चित तिथि पर परीक्षा आयोजित कराए । सभी परीक्षाओं की योग्यता निर्धारित कर दी जाय ।यदि पद चतुर्थ श्रेणी का है तो उसके लिए बारहवीं से ज्यादा पढ़े लोगों को अयोग्य माना जाय । इसी प्रकार विभिन्न श्रेणी के पदों हेतु निम्नतम व अधिकतम दोनों योग्यता निर्धारित कर दी जाय । अभ्यर्थी के तीन विकल्प दिए जायँ। पद के अनुरुप प्रश्न पत्र बनाते समय उस पद के अनुसार मनोवैज्ञानिकों की सलाह से भी 10% प्रश्न जरूर रखे जायँ ताकि उनके मानसिक स्तर का भी पता चल सके ।
हो सके तो उसमें कोई न्यूनतम प्राप्तांक अनिवार्य कर दिया जाय। फिर जिन राज्यों में रिक्तियाॅ आएँ उनकी मेरिट व विकल्प को ध्यान में रखकर नियुक्ति पत्र निर्गत किया जाय । हाँ, राज्य विशेष की रिक्तियों में उस राज्य के अभ्यर्थी को, जो अपनी प्राथमिकता में भी अपने राज्य को चुना है , उसे अतिरिक्त 10 अंक का अधिभार देने की व्यवस्था हो ताकि किसी राज्य विशेष में दूसरे राज्य के लोगों की भरमार न हो । यदि किसी पद विशेष के लिए साक्षात्कार का प्रावधान जरूरी हो तभी साक्षात्कार रखा जाय और यथासंभव साक्षात्कार समिति में मनोवैज्ञानिकों को प्राथमिकता दी जाय । इसकी वैधता दो या तीन साल तक हो और निम्नतक अंक, जो निर्धारित किया जाय , पाने वाले को ही अर्ह माना जाय ।