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उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: दलबदलुओं का कितना प्रभाव

डाॅ. अवध नारायण त्रिपाठी (स्वतंत्र चिंतक)

2014 में नरेन्द्र मोदी के भारतीय राजनीति में आगमन के साथ ही देश की राजनीति में एक गुणात्मक बदलाव आ चुका है । अब घिसी पिटी राजनीति , ” कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा ” से सरकार बनाने की तरकीब कारगर नहीं रह गयी है । यह सच है कि लम्बे समय तक भारत पर विदेशी शासन व एक सुनियोजित तरीके से सनातन संस्कृति पर हमले ने हमें भीतरखाने कई विरोधी जातियों में बाॅटने का काम किया । सनातन धर्म व संस्कृति की गलत तस्वीर प्रस्तुत कर सवर्ण,  दलित , अछूत आदि आदि नये शब्दों को लाकर हिन्दू समाज को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने की साजिश रची गयी ।

धार्मिक विद्वेष को भड़काकर पहले तो देश विभाजन कराया गया पुनः सिक्खों को भी अलग धर्म बताकर उनको तोड़ने की कोशिश हुई जबकि यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि सिक्ख पंथ की स्थापना ही मुगलों से हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए की गयी थी ।
यह भी ऐतिहासिक सच्चाई है कि शक , हूण , गुर्जर आदि कबीलाई आक्रमणकारी जब भारत आए तो उनको विशाल व उदात्त हिन्दू धर्म ने अपने में आत्मसात कर लिया । इसी प्रकार बौद्ध अथवा जैन धर्म जो उस समय की समाज में प्रचलित कुछ कुरीतियों के कारण अस्तित्व में आया , उसे भी हिन्दू धर्म ( सनातन धर्म ) में समाहित कर लिया गया । वह भले ही भारत के बाहर अपनी खूबियों से फला फूला लेकिन वह भारत में हमारी सनातन संस्कृति का एक हिस्सा ही रहा ।

दुर्भाग्य से हम इस्लाम के साथ वह व्यवहार नहीं कर सके । यद्यपि इसके पीछे अनेक कारण हैं लेकिन यह भी सच है कि भारत में रहने वाले अधिकांश या यूँ कहिये बहुतायत मुसलमान मूलतः हमारी अपनी भारतीय संस्कृति के ही उपासक रहे हैं।  समयकाल में प्रलोभन अथवा सत्ता का संरक्षण पाने के लिए वह इस्लाम को कबूल कर लिए । जरूरत थी अच्छा व अनुकूल परिवेश बनाकर उनको अपने साथ जोड़ने की लेकिन राजनीतिक स्वार्थ ने इसमें जहर घोलने का काम किया ।

स्वतंत्रता मिलने के बाद लोकतंत्र में लोक की समझ विकसित नहीं की गयी और एक झटके में सबको मत का अधिकार दे दिया गया जो अन्य किसी देश में नहीं हुआ था । खैर , उसके बाद उनको जागरूक करना चाहिए था ताकि वह अपने मत के महत्व को समझ सकें।  अफसोस काॅग्रेस ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की और हर जाति से एक व्यक्ति को प्रतीक के रूप में सामने करके उस जाति का थोक में मत लेने का काम किया । यही नहीं गरीब भोली भाली जनता को साड़ी,  कम्बल , कपड़े,  रुपये का प्रलोभन देकर उनका मत लिया गया , जो आज भी किसी न किसी रूप में जारी है ।  जनता अपने विधायक व सांसद को पहचानती भी नहीं थी और वह उनके मत से हर सुख सुविधा को भोगते रहे ।

धीरे धीरे जातियों में चेतना जगी और फिर जाति विशेष के दल बनने लगे और उनके स्वयंभू नेता फलने फूलने लगे । लेकिन आम लोगों के मूल जीवन में कोई बदलाव नहीं हुआ । अब जाति के नाम पर गरीब जनता की भावनाओं का शोषण कर यह नेता अपने निजी हित के अनुसार सरकार में शामिल होकर मलाई के हकदार बन गये और आमजन की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ ।

इस बीच जो विश्व स्तर पर सूचना क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ, समाचारपत्रों के बाद , रेडियो और फिर दूरदर्शन तथा मोबाइल के नये आविष्कार ने मानों सबकुछ उलट पलट कर रख दिया । अब हर आदमी तमाम गतिविधियों को जीवंत देखकर उसपर सोचने विचारने लगा और अपने हित को समझने लगा ।

इन परिस्थितियों में भारतीय राजनीति में नरेन्द्र दामोदर मोदी जी का पदार्पण हुआ। अब तक जहाँ विशिष्ट परिवार के लोग ही सत्ता के केन्द्र में होते थे वहां पहली बार एक चाय बेचने वाला , गरीब व अति पिछड़े समाज की पृष्ठभूमि से गुजरात में तीन बार अपने दम पर भाजपा की सरकार बना व चलाकर तथा किसी भी प्रकार के आर्थिक आरोप के बिना देश को मथने व नया सपना दिखाने रंगमंच पर उभरा । देश , जो लम्बे समय से गठबंधन की राजनीति की लूट खसोट से त्रस्त था , उस देश के युवाओं,  गरीबों व शोषितों को इस नरेन्द्र मोदी में एक नयी उम्मीद की किरण दीखी और 2014 का चुनावी परिणाम चौंकाने वाला रहा । लम्बे समय के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी ।

नरेन्द्र मोदी मूलतः गुजरात के थे फिर भी उन्होंने देश की राजनीति में पदार्पण के लिए काशी को अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना । मानों भगवान शंकर और माँ गंगा ने खुद उनको प्रेरित कर सनातन संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए बुलाया हो । यह भारत के एक नये युग का आरंभ था । यद्यपि नरेन्द्र मोदी पर अनेक आरोप लगते रहे और आज भी लग रहे हैं,  जो स्वाभाविक है लेकिन इन सबसे निस्पृह ; अनासक्त भाव से देश की दशा व दिशा को बदलने तथा एक बार पुनः विश्व रंग मंच पर भारतीय सनातन संस्कृति को नये कलेवर में प्रस्तुत कर मानवता को विश्व बंधुत्व और भाई चारे  ” सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया: ” का पाठ पढ़ाने की दिशा में ठोस प्रयास आरंभ किया।

इन बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में 2017 का उत्तर प्रदेश की विधान सभा का चुनाव हुआ । भाजपा के पास उस समय राज्य में कोई ऐसा सक्षम नेतृत्व नहीं था जिसे आगे रखकर चुनाव लड़ा जा सके । इन परिस्थितियों में नरेन्द्र मोदी फिर सामने आए और उत्तर प्रदेश की जनता को उसकी तकदीर व तस्वीर बदलने का भरोसा दिलाया । दूसरी ओर जातिवाद व परिवारवाद में आकण्ठ डूबी काॅग्रेस,  बसपा और सपा आपसी तिकड़म में लगी पार्टियां सामने थी । अपना अस्तित्व तलाशती काॅग्रेस ने सपा से गठबंधन किया , जबकि पिछले पांच साल से उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार थी लेकिन उसके पास अपनी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं थी जिसे लेकर वह जनता के बीच जाती ।

अपनी संभावित हार से बचने के लिए उसने डुबती नाव ” काॅग्रेस ” का  सहारा लिया । वहीं बसपा एकबार पुनः दलित मत के भरोसे और भाजपा का डर दिखाकर मुस्लिम मत को अपनी ओर करने की उम्मीद से चुनाव मैदान आ डटी । उत्तर प्रदेश जहाँ समाज में भयंकर जातिवाद का बोलबाला है वहां जो युवाओं की नयी पौध तैयार हो रही थी , वह इससे बाहर निकलने को छटपटा रही थी और अभी उसने 2014 में नरेन्द्र मोदी पर विश्वास जताया था , अतः उसने एकबार फिर सभी जातीय बंधनों को तोड़कर भाजपा को वोट दिया । फलतः कुल 403 सीटों में 325 पर भाजपा की अप्रत्याशित जीत हुई ।

इस अप्रत्याशित जीत के बाद  उत्तर प्रदेश की बागडोर किसके हाथ में दी जाय , यह एक चुनौतीपूर्ण सवाल था । अचानक एक चेहरा योगी आदित्य नाथ जी के रूप में सामने आया । इसके पहले योगी आदित्य नाथ जी गोरखपुर के गोरक्षपीठ के महंथ के साथ साथ लगातार पांच बार गोरखपुर से भाजपा के सांसद रह चुके थे । गोरक्षपीठ में उनकी कार्यशैली , सर्व समाज,  जाति , धर्म के लोगों को न्याय दिलाने व मदद करने के रूप में बन चुकी थी । उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी ऐसे व्यक्ति को देने का निर्णय एक मील का पत्थर साबित हुआ । भाजपा ने एक बार पुनः एक ऐसे व्यक्ति को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जिसका अपने परिवार से न कोई रिश्ता था , न कोई वंश परंपरा थी । योगी जी एक सामान्य परिवार से थे जो बचपन में ही गृहत्याग कर योगी बन गये थे और गोरक्षपीठ के तत्कालीन महंथ अद्वैतनाथ के शिष्यत्व में अपनी पहचान बनायी ।

ऐसे व्यक्ति को नरेन्द्र मोदी का साथ मिला तो विकास की गाड़ी को गति मिली । सरकार का धन जरूरतमंद लोगों के खाते में सीधे पहुँचने लगा । ढाॅचागत निर्माण में गति आयी , सभी योजनाएं निर्धारित समय से पहले पूरी होने लगी । उत्तर प्रदेश जो गुण्डों , माफियाओं की शरण स्थली था , उनके खिलाफ योगी की सख़्त नीति ने उनको प्रदेश छोड़ने को विवश किया , या तो वह सुधर गये या जेलों में अथवा पुलिस मुठभेड़ में मारे गये । अवैध कब्जे पर योगी का बुलडोजर कहर ढाने लगा । इस बीच कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने विकास की गति को काफी हद तक ठप्प किया लेकिन योगी का समर्पण , कर्मठता से उत्तर प्रदेश इस महामारी से जल्द ही उबर गया । 

अब जब 2022 का विधान सभा का चुनाव आया तो पुनः कोरोना की तीसरी लहर कहर ढा रही है । इन बदली परिस्थितियों में नये तरह के चुनाव की तैयारी हो चुकी है । अब तक राजनीति करने वाले सरकारी धन को लूटने के लिए राजनीति में आते थे लेकिन मोदी योगी ने राजनीति को सेवा का माध्यम बनाकर राजनीति की दशा और दिशा ही बदल दी । ऐसे में राजनीति की मलाई खाने वाले स्वार्थी व परिवारवादी नेता जो भाजपा से जुड़े थे , चुनाव की घोषणा होते ही भाजपा से छिटकने लगे और समान सोच वाले दल से अपना नाता जोड़ लिया । इन्होंने जब देखा कि योगी पर अन्य कोई आरोप ( भ्रष्टाचार या भाई भतीजावाद) नहीं लगाया जा सकता तो एक सोची समझी चाल के तहत भाजपा व योगी सरकार को दलित विरोधी , पिछड़ा विरोधी बताने की कोशिश की और यह बताना चाहा कि सभी दलित व पिछड़े तथा मुस्लिम भाजपा के विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं।  दूसरे, योगी जी पर एक दूसरा आरोप उनकी जाति को लेकर जातिवादी बताने की रही । जिस दल ने दलित को देश का राष्ट्रपति बनाया , जिसने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सबसे अधिक पिछड़ों को प्रतिनिधित्व दिया उसपर यह आरोप कैसे चश्पा हो सकता है ?

वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उत्तर प्रदेश के चुनाव को द्वि कोणीय बनाने की पुरजोर कोशिश कर रही है । इसके पीछे का मूल कारण यह है कि मोदी ने 2014 में सत्ता की बागडोर संभालते ही निजी चैनल वालों को मुफ्त विदेश यात्रा,  अच्छे होटलों में रहने ,मॅहगी विदेशी शराब व कबाब पर एक झटके में रोक लगा दी । मुफ्तखोरी की अभ्यस्त मीडिया मोदी के इस कदम से एकदम बौखलाई है । इसलिए वह इसे कभी अगड़े/पिछड़े की लड़ाई बताने की कोशिश कर रही है और कभी भ्रष्ट नेताओं के अपने स्वार्थ के लिए पार्टी छोडने को भाजपा में हार की डर से भगदड़ के रूप में प्रचारित करने की कोशिश कर रही है ।

आखिर अखिलेश यादव किस पिछड़ी जाति के लिए कोई काम किए हैं।  माननीय मुलायम सिंह यादव जी और अखिलेश जी केवल परिवारवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं।  परिवार से जो मलाई बच जाती है उसमें से शेष यादवों की हिस्सेदारी होती है । अन्य पिछड़ी जाति अथवा अल्पसंख्यक समुदाय का एकाध चेहरा प्रतीकात्मक रूप से उस बंदर बाँट में शामिल कर लिया जाता था ।

अब बात आती है 2022 के विधानसभा चुनाव के संभावित परिणाम की । इसमें युवा , कमजोर तबका जिसे मुफ्त राशन, मुफ्त आवास , मुफ्त गैस सिलिंडर, किसानों के खाते में सीधे मिलने वाली धनराशि तथा भारत के सुनहरे भविष्य का सपना सॅजोने वाले अगड़े, पिछड़े, सवर्ण, दलित, अनुसूचित जनजाति तथा कुछ मात्रा में अल्पसंख्यक समुदाय भी भाजपा के साथ हैं।  वहीं  दूसरी ओर सपा , रालोद , ओमप्रकाश राजभर तथा अल्पसंख्यक समुदाय का एक तबका सपा के साथ है , जबकि हमेशा आश्चर्यजनक परिणाम देने वाली बसपा भी दलित , कुछ अंश तक अल्प संख्यक समाज, कुछ ब्राह्मण मतों पर अपनी नजर गड़ाए अपनी रणनीति पर सदैव की तरह चुपचाप आगे बढ़ रही है । काॅग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी खोयी जमीन पाने के लिए नयी रणनीति  ” लड़की हूँ,  लड़ सकती हूँ ” के नारे के साथ महिलाओं को 40% सीटे देकर अपनी वजूद के लिए संघर्ष कर रही है । अति महत्वाकांक्षी अखिलेश से आम आदमी पार्टी का भी तालमेल नहीं बन सका ,वह भी जैसी चर्चा है करीब एक सौ सीट पर अपने जनाधार को विस्तार देने के लिए अपना भाग्य आजमाने आ रही है । असदुद्दीन ओबैसी , मुस्लिम उग्रवाद का नया चेहरा लेकर मुस्लिम बहुल सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करने का निर्णय कर चुके है । अभी भीम आर्मी के मुखिया चन्द्रशेखर आज़ाद को  लाख कोशिश के बावजूद अखिलेश यादव उनको पाँच सीट देने को भी तैयार नहीं हुए , इसलिए वह भी अपने प्रत्याशी खड़ा कर रहे हैं।

विपक्षी मतों का इतना बिखराव भाजपा के लिए कैसी चुनौती बन सकेगा ? यह अविश्वसनीय तर्क है । विधान सभा में करीब एक सौ सीट तो हजार दो हजार मतों के अंतर से जीती हारी जाती है । ऐसे में पिछले पांच सालों में बिना भेदभाव के सबको मुफ्त राशन , मुफ्त वैक्सीनेशन और तमाम ढाँचागत सुविधाओं में गुणात्मक सुधार तथा प्रदेश में एक बेहतर कानून व्यवस्था का शासन कायम कर डबल ईंजन की सरकार ने जो काम किया है उसको विरोधी दल के समर्थक भी स्वीकार कर रहे हैं।  इन स्थितियों में जमीनी सच्चाई से दूर मीडिया द्वारा गढ़ा जा रहा यह द्विकोणीय मुकाबला केवल एक कपोलकल्पना के सिवा कुछ नहीं।  हाँ,  यह जरूर हो सकता है कि इस दुष्प्रचार से भाजपा की दस पाँच सीटे कम हो सकती हैं लेकिन अंततः उत्तर प्रदेश की जनता विकास के रथ के साथ अपना मतदान करेगी ।

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