नये संसद भवन के उद्घाटन का कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष का बहिष्कार कितना उचित ?

डॉ अवध नारायण त्रिपाठी

जो पल हमारे गौरव के होने चाहिए, उसे भी निहित राजनीतिक स्वार्थ के चलते तमाशा बनाना आखिर मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है ? मोदी का यह उद्घोष कि हमें पराधीनता के प्रतीकों से इतर, भारतीय गौरव को उद्घाटित कर , नई पीढ़ी को अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करने , उन्हें उद्यमी, कौशलयुक्त और दुनिया के सामने आगे आने वाली चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने योग्य बनाने की दिशा में पहल करने की दिशा में सार्थक प्रयास करने की जरूरत है। यह भला कैसे किसी भारतीय राजनीतिक दल को अप्रिय लग सकता है ? यह किसी आम भारतीय की समझ के बाहर की बात है। मोदी जी की नीतियों से असहमति हो सकती है। विपक्ष होता है इसलिए कि वह सत्तधारी दल की गलत नीतियों की आलोचना करे और आम जनता के हित के मुद्दों को पूरी ताकत से सरकार के सामने उठाए और सरकार को उसे मानने को बाध्य करे। लेकिन यहां तो उल्टी गंगा बह रही है। सरकार के हर काम का विरोध करना अपना परम कर्तव्य मानकर विरोधी दल खासकर कांग्रेस पार्टी जन सरोकार से दूर होती जा रही है।

अभी कर्नाटक की जीत को विपक्षी दल खासकर कांग्रेस अपनी बड़ी उपलब्धि समझ रही है और इसे मोदी की हार के रूप में देख रही है। जबकि सच्चाई यह है कि कर्नाटक की जनता भाजपा के अक्षम नेतृत्व वाली राज्य सरकार से दुखी थी और वहां लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच थी इसलिए जनता ने कांग्रेस को अवसर दिया।‌हां , इसमें मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण इस जीत के अंतर‌ को और भी बड़ा बना दिया। लेकिन यह जनादेश केन्द्र सरकार अथवा मोदी जी के विरुद्ध कत्तई नहीं था । ऐसा भ्रम पालकर कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं।

नया संसद भवन आज की जरूरत भी थी और इसपर कांग्रेस भी विचार कर रही थी। हां, यह अलग बात है कि यह काम मोदी जी की सरकार द्वारा किया गया। नये संसद भवन बनने के दिन से विपक्ष इसे  ” मोदी का महल ” कह कर लगातार व्यंग्य करता रहा। खासकर कांग्रेस इसे कत्तई नहीं पचा पा रही थी कि इसका श्रेय नरेन्द्र दामोदर मोदी को मिले । लेकिन मोदी सरकार ने तमाम आलोचनाओं को अनसुना कर इस काम को प्राथमिकता दी और अगले 50/100 साल की जरूरतों को ध्यान में रखकर इसे अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस और निर्धारित समय सीमा में तैयार करा दिया।

अब नये संसद भवन का उद्घाटन महामहिम राष्ट्रपति महोदया से कराया जाय ऐसी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं। पुनः जिस आदिवासी और महिला के अपमान का राग विपक्ष अलाप रहा है, उसने तो एकजुट होकर उस आदिवासी महिला के विरुद्ध अपना प्रत्याशी खड़ा किया और पूरी ताकत से चुनाव लड़ा । यह बात अलग है कि वह उनको महामहिम राष्ट्रपति बनने से रोक पाने में असफल रहे। यही नहीं मणिपुर और छत्तीसगढ़ की विधानसभा का उद्घाटन तो श्रीमती सोनिया गांधी ने किया था । उसमें महामहिम राज्यपाल/राष्ट्रपति को आमंत्रित भी नहीं किया गया था। फिर तो वही बात कि ” चित भी मेरी, पट भी मेरी “। हम करें तो ठीक और मोदी करें तो गलत । आखिर कांग्रेस ने स्वयं ऐसी परंपरा स्थापित की होती तो भी उसका विरोध करना उचित लगता।

चूंकि 2024 का चुनाव निकट है। मोदी जी के नेतृत्व में देश विकास के पथ पर तेजी से चल निकला है। उसे कैसे रोका जाए ? ऐसे में यह संदेह करना कि कहीं विपक्ष विदेशी साजिश का शिकार तो नहीं? अगर यह बात आमजन के दिमाग में बैठ गई तो विपक्ष कहीं का भी नहीं रह पाएगा।   आज अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर भारत की एक अलग छवि उभर रही है । दुनिया के पिछड़े देश भारत को अपना मददगार मान रहे हैं। विकासशील देश भारत की ओर नई उम्मीद से देख रहे हैं और विकसित देश भौतिकता से इतर भारत की समृद्ध संस्कृति से सम्मोहित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक योग्य व सशक्त नेतृत्व ही देश को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकता है। राजनीति करने के बहुत से अवसर आएंगे। दस बीस साल का समय  किसी देश के लिए बहुत अल्प समय होता है । अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां हमेशा एक जैसी नहीं होती। आज जरूरत थी ओछी राजनीति की जगह देशहित को महत्व देने की । नये संसद भवन के उद्घाटन में सभी राजनीतिक दलों को पूरे उत्साह से भाग लेना चाहिए था। ऐसे क्षण किसी देश के इतिहास में बार बार नहीं आते हैं।

विरोध के लिए बहुत सारे मुद्दे हैं। ऐसा नहीं कि इसके अलावा कोई मुद्दा बचा ही नहीं। सशक्त लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष का होना भी जरूरी होता है। आज जरूरत विपक्षी दलों की एकजुटता व सशक्त विपक्ष की है। विपक्ष को उस दिशा में ईमानदार पहल कर सरकार को बेरोजगारी , मंहगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा आदि मुद्दों पर घेरना चाहिए। जनता की समस्याओं को पूरी ताकत से उठाकर , सकारात्मक प्रस्ताव के साथ उसे मानने के लिए शासक दल को बाध्य करना चाहिए। इससे उनकी जनता में विश्वसनीयता भी बढ़ेगी और लोकतंत्र भी मजबूत होगा। लेकिन राष्ट्रीय गौरव के क्षण को ओछी राजनीति के चक्कर में बहिष्कार कर विपक्षी दल जनता की दृष्टि में अपनी साख कम कर‌ रहे हैं और‌ आमजन उनके इस निर्णय को  कत्तई उचित कदम के रूप में नहीं देख रहा है। अभी भी समय रहते यदि वह चेत सकें तो श्रेयस्कर होगा। जब जागो, तभी सवेरा।